अज़ा-ए-शाह पर कम यूँ तो बमबारी नहीं होती

अज़ा-ए-शाह पर कम यूँ तो बमबारी नहीं होती
मगर ज़ाया ज़रा सी भी ये फुलवारी नहीं होती

ये सब शब्बीर की ख़्वाहर की मेहनत का नतीजा है

अगर ज़ैनब नहीं होतीं, अज़ादारी नहीं होती


गलों को इसलिए भी ख़ुश्क रखते हैं सर-ए-मक़तल

कि हमसे खंजरों की नाज़-बरदारी नहीं होती


अज़ान-ए-सुब्ह-ए-आशूरा ने दस्तक दी तो हुर्र उट्ठा

वगरना नींद ग़ालिब रहती बेदारी नहीं होती


अजब है तीर की ज़द पर तुम्हारा मुस्करा देना

जवानों में भी असग़र इतनी हुशियारी नहीं होती


कि हम तो हामियान-ए-मज़हब-ए-मज़लूम हैं लोगों

कि हमसे ज़ुल्म की हरगिज़ तरफ़दारी नहीं होती 


मैं घर से करके दम नादे अली चलता हूँ सीने पर

सफ़र में इसलिए भी कोई दुश्वारी नहीं होती


सहारा देने जो अब्बास के बाज़ू चले आते

तो फिर ये लाश-ए-अकबर शाह पर भारी नहीं होती

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